चिड़िया नाल मैं बाज लड़ावां, गिदरां नू मैं शेर बनावा
सवा लाख से एक लड़ावा, ता मैं गोविंद नाम कहावा
गुरू गोविंद सिंह जी के मुखारविंद से निकली इन पंक्तियों को चरितार्थ करता हुआ चमकौर गड़ी का महायुद्ध (दिसंबर 1705) जो गुरु गोविंद सिंह जी के चारों साहबजादों और चालीस सिख सरदारों की असाधारण वीरता और बलिदान की अमर गाथा को प्रदर्शित करता है|
आनंंदपुुर साहिब से निकलने के पश्चात सिरसा नदी पार करते वक्त गुरु जी का परिवार, गुरूजी और उनके बड़े पुत्र साहिबजादे अजीत सिंह जी (17 वर्ष) और साहिबजादे जुझार सिंह जी (14 वर्ष) से बिछुड़ गया|गुरुजी अपने दोनों बड़े पुत्रों और 40 सिख सरदारों के साथ चमकौर पहुंचने में सफल रहे और तब मुगलों के साथ हुये चमकौर गड़ी के युद्ध में असाधारण शौर्य का परिचय देते हुए गुरुजी के दोनों बड़े पुत्रों और सभी सरदारों ने धर्म की रक्षा हेतु अपना बलिदान दिया | इन सिंहो ने इतनी भयंकर लड़ाई लड़ी कि कोई भी दुश्मन उनसे अकेले लड़ने कि हिम्मत नहीं कर पाया था। उस युद्ध में दुश्मनों के बीच जाकर उन्होंने ऐसा तांडव मचाया कि कई तो उनके आने कि खबर सुनकर ही भाग गए और कितनों कि जान तो बिना लड़े ही निकल गई |युद्ध बाद इस घटना का वृत्तांत सुनाते हुए मुगल उनकी तुलना शिकार की तलाश में पानी में छलांग लगाते मगरमच्छ से करते थे|
उधर गुरूजी से बिछड़ने के बाद माता गूजरी देवी (गुरू गोविंद सिंह जी कि माता) ,साहिबजादे ज़ोरावर सिंह जी (9 वर्ष) और साहिबजादे फ़तेह सिंह जी (7 वर्ष) के साथ सुरक्षित रूप से नदी पार करने में कामयाब रहीं और एक गांव में उनकी मुलाक़ात अपने पुराने रसोइये से हुई जिसने उन्हें अपने घर में शरण दी। माता गूजरी देवी के पास सोने की मोहरें देखकर उसको लालच आ गया और उसने उनका सोना लूटने के उपरांत माता गूजरी देवी और साहिबज़ादों को धोखे से मुगलों को सौंप दिया |
मुुगलों के सरहिंंद के नवाब वजीर खान के किले में साहिबजादा जोरावर सिंह जी और साहिबजादा फतेह सिंह जी को अपनी दादी गूजरी देवी के साथ ( जो लगभग 81 वर्ष की थी ) , एक ठंडे बुर्ज की छत पर रखा गया| उनके पहने हुए कपड़ों को छोड़कर, उनसे सब कुछ छीन लिया गया था। ठंडी हवा से बचने के लिए उनको कोई कंबल तक नहीं दिया गया था।
छोटे साहिबजादों ने मुुगलों के सामने झुकने से इनकार कर दिया। जब उन्हें एक छोटे से दरवाजे से गुज़रने के लिए कहा गया जो सिर्फ़ उनके कंधों तक ही पहुँचता था, तो वे सिर झुकाने के बजाय पीछे की ओर झुके और पहले पैर से अंदर घुसे। वजीर खान ने साहिबजादों को डराने, फुसलाने और इस्लाम स्वीकार कराने के लिए बहुत प्रयत्न किए लेकिन सफलता हाथ ना लगी |
नन्हें वीर ने गरजते हुए वजीर खान से कहा “हम उन गुरू तेगबहादुर जी के पोते हैं जो धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान हो गये। हम उन गुरू गोविंदसिंह जी के पुत्र हैं जिनका एक-एक सिपाही तेरे सवा लाख गुलामों को धूल चटा देता है, जिनका नाम सुनते ही तेरी सल्तनत थर-थर काँपने लगती है । तू हमें मृत्यु का भय दिखाता है । हम फिर से कहते हैं कि हमारा धर्म हमें प्राणों से भी प्यारा है। हम प्राण त्याग सकते हैं परन्तु अपना धर्म नहीं त्याग सकते ।”
सेर जावे तन जावे, मेरा सीखी सिदक ना जावे।
(हम अपनी जान तो छोड़ सकते हैं, लेकिन अपनी सिखी नहीं छोड़ सकते)
जब उनसे पूछा गया कि अगर उनको छोड़ दिया जाए तो वो क्या करेंगे तो बालक जोरावर सिंह कहते हैं कि वो सेना इकट्ठी करेंगे और अत्याचारी मुगलों को इस देश से खदेड़ने के लिए युद्ध करेंगे । उनके जवाब से स्तब्ध मुगलों के सरदार ने जब यह पूछा कि अगर हार गये तो क्या करोगे ? तो जोरावर सिंह का जवाब था “हार शब्द हमारे जीवन में नहीं है । हम हारेंगे नहीं, या तो विजयी होंगे या शहीद होंगे ।”
उनके जवाब से आगबबूला होकर वजीर खान ने दोनों बच्चों को जिन्दा दीवार में चुनवा देने कि सजा सुनाई ।

वजीर खान के क्रूर फैसले के बाद दोनों बालकों को उनकी दादी के पास भेज दिया गया । बालकों ने उत्साहपूर्वक दादी को पूरी घटना सुनाई । बालकों की वीरता को देखकर दादी गदगद हो उठी और उन्हें हृदय से लगाकर बोली : “मेरे बच्चों! तुमने अपने पिता की लाज रख ली ।”
दूसरे दिन दोनों वीर बालकों को निश्चित स्थान पर ले जाकर उनके चारों ओर दीवार बननी प्रारम्भ हो गयी । धीरे-धीरे दीवार उनके कानों तक ऊँची उठ गयी । इतने में बड़े भाई जोरावरसिंह ने अंतिम बार अपने छोटे भाई फतेहसिंह की ओर देखा और उनकी आँखों से आँसू छलक उठे ।
जोरावर सिंह की इस अवस्था को देखकर वहाँ खड़े वजीर ने समझा कि ये बच्चे मृत्यु को सामने देखकर डर गये हैं । वह उनसे बोला “अभी भी समय है । यदि तुम मुसलमान बन जाते हो तो तुम्हारी सजा माफ कर दी जाएगी ।”
जोरावर सिंह गरजकर कहते हैं “अरे मूर्ख ! मैं मौत से नहीं डरता । मेरा भाई मेरे बाद इस संसार में आया परन्तु मुझसे पहले धर्म के लिए शहीद हो रहा है । मुझे बड़ा भाई होने पर भी यह सौभाग्य नहीं मिला, इसलिए मुझे रोना आता है ।”
नौ वर्ष के इस नन्हें से बालक के मुख से ऐसी बात सुनकर सभी दंग रह गये । थोड़ी देर में दीवार पूरी हुई और वे दोनों नन्हें धर्मवीर उसमें समा गये। कुछ समय पश्चात दीवार को गिरा दिया गया। दोनों बालक बेहोश पड़े थे, परन्तु अत्याचारियों ने उसी स्थिति में उनकी हत्या कर दी।
गुरु गोविंद सिंह जी के पुत्रों, गुरु तेग बहादुर जी के पौत्रों और गुरु अर्जन देव जी के परपोतों के रूप में साहिबजादों ने और उन तमाम सिखों ने सत्य के रक्षक होने के अपने दायित्व और अत्याचार और अन्याय का विरोध करने में दृढ़ रहने के अपने कर्तव्य को प्रमाणित किया|
26 दिसंबर 1705 को उन बालवीरों के बलिदान के उपरांत जब माता जी को पता चला कि दोनों साहिबजादों का सिर काट दिया गया है, तो उन्होंने अपने हाथ जोड़े और फिर कभी न उठने के लिए गिर पड़ीं। जिस तरह वे जीवन में साहिबजादों के साथ थीं, उसी तरह वे मृत्यु में भी उनके साथ शामिल हो गईं |
