ऋग्वेद भारत के लगभग दस हजार साल से भी ज्यादा पुराने उस समय को चित्रित करता है जब हिमालय के उत्तरी हिस्से से सात प्रमुख नदियां , पश्चिम ( पंजाब, राजस्थान ) की ओर बहते हुये सरस्वती नदी में मिलकर सिन्धु सागर (आज के अरब सागर ) में जाकर विलीन हो जाती थीं | इन सात नदियों के नाम सिंधु , वितस्ता ( चिनाब ) , पारुशिनी (रावी ) , सरस्वती , यमुना , गंगा और घग्गर ( सरयु ) थे | सरस्वती नदी और इसकी सहायक नदियों के तट पर ऋग्वैदिक या यूं कहें सरस्वती सभ्यता पनपी | इस सभ्यता या फिर आर्यों की मूल मातृभूमि के बारे में कहा जाता है कि यह कैलाश पर्वत के पास का तिब्बती क्षेत्र था जिसको इलावृत के नाम से भी जाना जाता था | इसी मूल मातृभूमि को वेदों में अर्जिका कहा गया है | ऐसा कहा जाता है कि इसी जगह पर हमारे पूर्वज मनु महाराज ने महान बाढ़ ( प्रलय ) से बचने के लिए शरण ली थी |
ये नदियां भारतीय सभ्यता की पालक नदियां थी | ऋग्वेद के मंत्रों में हिमालय से समुद्र तक बहने वाली शक्तिशाली नदी सरस्वती का वर्णन है जिसे देव तुल्य मानने के साथ साथ विद्या, ज्ञान तथा कला की देवी के रुप में भी सम्बोधित किया गया है |कई श्लोकों में सरस्वती नदी की महानता का वर्णन करते हुए इनको प्रचुर संपदा को देने वाली नदी के रूप में मान्यता दी गई है जो ऊंचे पहाड़ों से निकलकर समुद्र तक बहती है | एक छंद में सरस्वती नदी का वर्णन एक चमकदार नदी जो की गर्जना करते हुए रथ के रूप में आगे बढ़ती है के रूप में किया गया है, उसे ज़ोर से गर्जना करने वाली, नदियों में सबसे बड़ी नदी कहा गया है वहीं दूसरे छंद में सरस्वती का वर्णन एक वेगवान मूसलाधार नदी के रूप में भी किया गया है | कहीं-कहीं ऋग्वेद में इस नदी की आराधना करते हुए कहा गया है
हम सबसे प्रिय नदी सरस्वती की प्रशंसा करते हैं जो ऋषियों द्वारा सात नदियों की बहन के रूप में पूजित है | ऋग्वेद- 6.61.1
वेदों में सरस्वती की धारा को देव तुल्य माना गया था | सरस्वती ज्ञान , विद्या और अंतर्दृष्टि की देवी थी | उन्हें ऋग्वैदिक सभ्यता क्षेत्र की सात नदियों में से सबसे पवित्र और सर्वश्रेष्ठ माना गया | सरस्वती एक ऐसी शक्तिशाली नदी रही होंगी जिसे लेकर ऋषियों, ऋग्वैदिक आर्यों के मन में विस्मय और आस्था दोनों के भाव उठते होंगे , ऐसे में धीरे-धीरे वह नदी से बुद्धि की देवी के रूप में बदल गई | ऋषि-मुनि अपना ज्यादातर समय नदी के किनारो पर ध्यान में ही बिताते थे और वहीं निवास करते होंगे , नदी के मुहाने पर ही खेती-बाड़ी की व्यवस्था भी होती होगी , अनाज इस नदी के जल के कारण ही उपजते थे , नदी के मधुर मीठे जल ने ही उनके शरीर को पोषण दिया , इस नदी के किनारे निवास करते पक्षीयों के कलरव स्वर ने ही उन्हें मधुर छंदों को लिखने के लिए प्रेरित किया होगा , इसी कारण उन्होंने नदी के जल को बुद्धि का स्रोत माना , उन्होंने पवित्र नदी के तट पर अपनी अंतर्दृष्टि और अंतर ज्ञान प्राप्त किया था इसलिए उन्होंने इसे ज्ञान , विद्या , अंतर्दृष्टि और अंतर ज्ञान की नदी कहा | वे ज्ञान की इस नदी की प्रशंसा मुक्त कंठ से करते थे , एक शक्तिशाली नदी की प्रशंसा में लिखे गए उनके गीत बुद्धि की देवी की प्रशंसा के गीतों में बदल गए | साथ ही विद्या और ज्ञान की देवी के रूप में यह नदी ख्याति पा गई | जिस तरह कालांतर में गंगा नदी को भारतीय सभ्यता में देवी का दर्जा दिया गया, कुछ इसी तरह सरस्वती भी ज्ञान की देवी उससे कहीं पहले हो गईं थी | गंगा और सरस्वती में अंतर सिर्फ इतना था कि सरस्वती सिर्फ एक नदी देवी नहीं थी , वह बुद्धि और शिक्षा की देवी भी मानी जाती थीं |
अम्बितमे, नदीतमे , देवितमे सरस्वति |
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिम्ब नस्कृधी |
अर्थात
सभी माताओं में उत्तम, सभी नदियों में उत्तम ,सभी देवियों में उत्तम ,
| सरस्वती | हे मां , हम अज्ञानी हैं |
हमें अपना ज्ञान और बुद्धि प्रदान करें |
ऋग्वेद में जिस तरह से सरस्वती को बुद्धि , शिक्षा और ज्ञान की देवी माना जाता था , उसी तरह से यजुर्वेद में उनकी वाणी की देवी के रूप में प्रशंसा की गई है |
देवी सरस्वती अपने सत्य वचन के प्रवाह से हमें सर्वदा सच बोलने के लिए प्रेरित करें ,
वह जो बुरे विचारों को दूर करती है वह देवी हमारी पवित्रता को जगाए ,वह हमारा यज्ञ स्वीकार करें |
यजुर्वेद – 20.85

सामवेद में सरस्वती के बारे में केवल दो श्लोक है जो स्पष्ट इशारा करते हैं कि ऋग्वैदिक काल की प्रबल वेग से बहने वाली सरस्वती अब धीरे-धीरे सिमटकर एक छोटी नदी के रूप में प्रवाहित होने लगी थी |
अथर्ववेद में सरस्वती को पूर्वजों की आत्मा को तृप्त और मुक्ति प्रदान करने वाली पवित्र जल-धारा के रुप में मान्यता मिली और इस तरह से एक समय की महान नदी रही सरस्वती महाभारत काल में सिमटकर कई जगह सरोवरों के रूप में या फिर कहीं कहीं छोटी जल-धारा रह गयी थी | अब ये सिर्फ रीति रिवाजों और वेदों में ही जिन्दा रहकर तर्पण का सोत्र हो गई थीं |महाभारत काल में कुरूक्षेत्र में हमारे पितरों का तर्पण किये जाने का वर्णन है | यह परम्परा आज भी कायम है , आज भी कई हिन्दु अपने पूर्वजों को पिंडदान देने कुरूक्षेत्र जाते हैं | इस प्रकार शक्तिशाली सरस्वती नदी का जीवन काल वेदों की प्रगति के साथ ही क्षीण होता गया | अथर्ववेद के समय तक सरस्वती अभी भी पवित्र मानी गयी हैं लेकिन इनके प्रभाव और आकार में भारी कमी आ गई | अथर्ववेद में यह केवल एक ऐसी नदी के रूप में याद की जाती है जो हमारे पूर्वजों की यादों से जुड़ी हुई थी | सरस्वती नदी के किनारे रहने वाले लोग इन्हें पवित्र मानते थे जिसकी वजह कुछ हद तक वैदिक परंपरायें भी रही | धीरे-धीरे यह नदी सूखने लगी और खुद ही खुद के खंडहरों पर विलाप करती एक मलिन जलधारा बन के रह गई | ऐसे में केवल रीति रिवाज और वेदों ने ही इस नदी को प्राण वायु प्रदान की |इस नदी के विलुप्त होने के साथ-साथ इसके यश की विजय गाथा भी मद्धिम पढ़ने लगी थी | सरस्वत लोग जो सरस्वती के किनारो पर रहते थे अपनी परंपराओं में इस नदी को जीवित रखने की चेष्टा कर रहे थे लेकिन यह नदी लगातार सूख रही थी और समय के साथ साथ विशाल मरुस्थल उसकी जगह ले चुका था | इस नदी की मृत्यु के साथ ही एक जीवंत सभ्यता का भी अंत हो चुका था | एक समय विश्व की सबसे पुरानी भारतीय सभ्यता को जन्म देने वाली इस नदी के विलुप्त होने से इसके किनारों पर रहने वाले लोगों को भी मीठे पानी के स्रोतों की खोज के लिए मजबूर होकर बाहर निकलना पड़ा , कुछ गंगा, यमुना , सरयु के मैदानों की तरफ चले गये तो कुछ ने पश्चिम ( संभवतया परसु ( फारस ( आज का इरान )) , अनातोलिया के माउंट अरारात ( आज का तुर्की ) , युरोप के भी आगे की तरफ रुख किया और इस प्रकार सरस्वती नदी की मृत्यु के साथ ही एक जीवंत सभ्यता का भी अंत हो गया |
साभार:
सरस्वती सभ्यता द्वारा मेजर जनरल (डा.) श्री जी डी बक्षी जी
सभ्यता के पालने की खोज में द्वारा श्री डेविड फ्रौले ,श्री सुभाष काक …
Really informative and precise
Thanks