ऋग्वैदिक काल का निर्णायक युद्ध जिसने ‘भारत वर्ष’ के नामकरण की नींव  रखी

 

ऋग्वैदिक संस्कृति के प्रारम्भिक काल में वेदों में वर्णित देेव और असुर संग्राम असल में वैदिक आर्यों के बीच विचारधारा के टकराव और सरस्वती नदी के पास की भूमि का नियंत्रण अपने हाथ में लेने की जद्दोजहद को दर्शाता है | देेव- असुर-दैत्य-दानव मूलत: एक आर्य जनजाति / समुदाय ही थे और सभी अग्नि की पूजा किया करते थे |


 

जब अंगीरास ऋषियों ( ऋषि अंगिरा के पुत्रगण जिनका वर्णन वेदों में अंगिरास के रूप में किया गया है ) ने अग्निहोत्र ( यज्ञ ) की परम्परा आरम्भ की और उन्होंने अग्नि में घी , अनाज और सोम ( एक विशिष्ट प्रकार का दुर्लभ पौधा जो हिमालय के ऊपरी स्थान में पाया जाता था ) की आहुति डालनी शुरू करी , इस उद्देश्य के साथ कि इस तरह से हमारी प्रार्थनाएं देवताओं तक पहुंचेंगी जो उन्हें स्वीकार करेंगे |


 

वास्तव में यह एक संभावना को वास्तविकता में परिवर्तित करने का तरीका था या इस तरह से भी समझ सकते हैं कि जब हम यज्ञ के समय ईश्वर से कोई प्रार्थना करते हैं तो यह प्रार्थना तरंगो के रुप में हवन ( यज्ञ ) के मंत्रों की वाहक तरंगों के साथ जुड़ जाती हैं और इस प्रकार उस प्रार्थना के वास्तविकता में बदलने की संभावना बढ़ जाती है | यही एकमात्र साधन था अपने आप को ईश्वर से जोड़ने का | यह तत्व ज्ञान असुरों को नहीं भाया | उनके अनुसार मंत्रों के जाप का कोई महत्व  ना था  , यज्ञ में हवन सामग्री के रुप में अनाज, सोम डालना  दुर्लभ संसाधनों की बर्बादी थी, इससे अग्नि प्रदूषित होती थी पर अंगिरा ऋषियों के अनुसार अग्नि में डाली जाने वाली हर चीज ( पवित्र या अपवित्र ) राख में बदल जाती है  | इस प्रकार ये वैचारिक मतभेेद और सोम की पवित्र  भूमि का नियंत्रण अपने हाथ में लेनी की अभिलाषा ही आर्यों के देव और असुर जातियों  के बीच हुए खूनी युद्धों का कारण बनी |

 

जिसमें ज्ञात युद्धों में त्रेता युग में भगवान इन्द्र और शम्बारा के बीच हुए युद्ध का वर्णन है जो कि नर्मदा नदी के तट पर हुआ था | ऋग्वेद के अनुसार शम्बारा एक दास्यु राजा था ( आर्यों में से ही एक समुुह जो वैदिक संस्कृति को नही मानता था ऐसे लोगों को वेदों में कहीं दास्यु / पाणी / दैत्य / दानव भी सम्बोधित किया गया है ) जिसका साम्राज्य विन्ध्य पर्वत श्रृंखला में आबु पर्वत ( माउंट आबु ) पर था , उसने सरस्वती नदी के मुहाने पर आर्य लोगों के रहने के स्थान पर हमला करके उनके अनाज और जानवर छीनकर उस पूरे इलाके से आर्यों को उनके पुरोहित अंगिरा ऋषि के साथ निकाल दिया , जिसका बदला लेने के लिए मनु महाराज ने भगवान इन्द्र की सहायता से समस्त दास्युयों को परास्त करके उन सबको पश्चिम की तरफ खदेड़ दिया शायद आज के ईरान की तरफ ( कई लोगों का ऐसा मत है क्योंंकि आज भी ईरान में आम लोगों को दास कहा जाता है )

 

और इस तरह मनु ने सरस्वती नदी के तट पर उत्तर  हिमालय तक अपना शासन बहाल किया जिसको वेदों में अर्जिका के नाम से पुकारा गया है और जो बाद में उनके पुत्र इला के नाम से इलावृत भी कहाया गया ( ऋग्वेद के अनुसार बाद में मनु महाराज हिमालय के पूर्व की ओर चलते हुए सरयु के रास्ते अयोध्या की तरफ बस गये थे ) |

 

कुछ काल के पश्चात असुर-दैत्य-दानव समस्त आर्य जातियों ने मिलकर फिर से वैदिक आर्यों की अर्जिका पर कब्जा कर लिया, इस बार आर्यों का नेतृत्व किया राजा दिवोदास ने , जो आर्यों के ‘भारत’ नामक समुदाय के ‘ तुत्सु ‘ नामक क़बीले के राजा थे | अपने पुरोहित ऋषि भारद्वाज की सहायता से शम्बारा पर हमला कर उसके साथ ही उसके समस्त किलों और लोगों को नष्ट कर दिया और फिर से मनुष्यों ( मनु को मानने वाले वैदिक लोग ) के सुुशासन को बहाल किया | इस प्रकार वैदिक संस्कृति को मानने वाले और न मानने वाले दोनो ही पक्ष के लोगों के बीच  युद्ध होते रहे , कभी वैदिक शक्तियां जीतती तो कभी आसुरी शक्तियां अपना वर्चस्व कायम कर लेतीं | इसी को वेदों में देवों-असुरों के बीच धर्म-अधर्म  की लड़ाई माना गया |

धीरे-धीरे समय के साथ साथ मनु के वंशजों ने  सरस्वती नदी के उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम  तक मनुष्यों की सभ्यता का विस्तार करना प्रारंभ कर दिया था | मनु के वंशजो में ‘राजा ययाति‘ के पांच पुत्र  हुये – तुर्वासा,  यदु , पुरु , द्रहयु   और अनु | ययाति ने पांचों पुत्रों को सरस्वती नदी के उत्तर पश्चिम ( आज के इरान-अफगानिस्तान ) से लेेकर उत्तर पूर्व ( आज के बंगाल- आसाम ) के पांच हिस्सों का राजा बना दिया | ऋग्वेद के प्रारम्भिक काल में इस जगह को ‘पंच जन्य ( पांच जनो का प्रदेश ) ‘ के नाम से सम्बोधित किया गया है |

 

 

कालांंतर में तुत्सु कबीले के ‘भारतों’ के राजा दिवोदास के पौत्र सुदास का प्रभाव सरस्वती क्षेत्र के हर तरफ फैल रहा था, इससे व्यथित पंंचजन्य प्रदेेश के पांचों राजाओं ने पुरू के नेतृत्व में अपने अन्य पांच सहयोगियों ( अलीन , अनु , भृगु , शिव , परसु ( पारसी समुदाय ) ) के साथ मिलकर सुदास के विरुद्ध मोर्चा खोला |

 

इन दस राजाओं के गृृहयुद्ध को ऋगवेेद में दाशराज्ञ युद्ध के नाम से जाना गया जो भारत वर्ष  का महाभारत युद्ध  से पहले का सबसे खतरनाक युद्ध  माना गया | राजा सुदास और मर्हषि वशिष्ठ के नेतृत्व में लड़े गये इस युद्ध में उन्होंने पुरु समर्थित दस राजाओं को हराकर समस्त हिन्द-आर्यौं पर अपनी धाक जमा ली। 

 

इसप्रकार इस क्षेत्र पर भारतों का बोलबाला होने के साथ ही इसका नामकरण ‘ भारत वर्ष ‘ हुआ और वैदिक संस्कृति का पूरे भारतवर्ष में विस्तार हुआ |


 

आज भी हिन्दुओं में यज्ञ- अनुष्ठान के दौरान कहा जाने वाला श्लोक ‘ भारत वर्ष ‘ को परिभाषित करने का कार्य करता है

 

‘ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णु , ॐ नम: परमात्मने —— श्री ब्रह्मणो द्वितीय परार्धे–  श्री श्वेत वाराह कल्पे —  वैवस्वत् मन्वन्तरे ——– कलियुगे — कलि प्रथम चरणे —  जम्बुद्वीपे — भारतवर्षे — भरत खण्डे — आर्यावन्तार्गत ब्रह्मावर्तेक देशे पुण्यप्रदेशे ……..

इस श्लोक में जम्बु द्वीप- एशिया की धरती , भारत वर्ष – भारत वंशियों की धरती , भारत खंडे – आर्यावर्त – जहां आर्य रहते थे  की संकल्पना पेश की गई है जो भारतीयों का इतिहास  बताता है |

 

 

 

संदर्भ :   Vedic Secrets of Ancient Civilisation by David Frawley

In the search of cradle of civilisation by George Feuerstein , Subhash Kak , David Frawley

Credit for Pictures: AI

 

4 thoughts on “ऋग्वैदिक काल का निर्णायक युद्ध जिसने ‘भारत वर्ष’ के नामकरण की नींव  रखी”

  1. Very nice compilation. Very informative. Thanks for spreading this knowledge to this generation. This should be part of our history books.

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